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उत्तर प्रदेश की धरती और बंगाल का कॉमिक जगत

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सुप्रतिम जी इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग में पीएचडी कर रहे हैं , साथ ही साथ वें उत्तर भारत के एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में शिक्षाविद और प्रशासक की भूमिका भी निभा रहे  है. उत्तर पूर्वी शहर अगरतला में जन्मे, एक कॉमिक बुक प्रेमी और युवा साहित्य के प्रति रुझान रखने वाले सुप्रतिम जी भारत के उत्तरी भाग और पूर्वी भाग के साहित्य/कॉमिक बुक प्रकाशकों से समान रूप से जुड़े हुए है. सुप्रतिम जी हिंदी, बंगाली, मराठी और अंग्रेजी बोलने में सक्षम है, तथा वह अपने विचार और ज्ञान से देश के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय युवा साहित्य और कॉमिक बुक उद्योग में योगदान करने की कोशिश कर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश की धरती

उत्तर प्रदेश, एक ऐसी भूमि जो न जाने कितनी सदियों से इस देश के कितने सवालो के जवाब समेटे अडिग खड़ा हैं. स्वतंत्रता संग्राम हो या देश के सबसे खास धरोहरों को सहेजे रखना, उत्तर प्रदेश ने हमेशा से ही भारत के आतंरिक मामलों में सुर्खिया बटोरी.

बंगाल का कॉमिक जगत

बंगाल के किशोर साहित्य और कॉमिक्स इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए आज बात करेंगे भारत के सबसे बेहतरीन लेखक, फिल्म निर्देशक में से एक सत्यजीत रे (Satyajit Ray) और उत्तर प्रदेश की इस भूमि से उनके जुड़ाव के बारे में. सत्यजीत रे के सबसे रोचक किरदार की श्रेणी में सबसे ऊपर आता हैं “फेलुदा” (Feluda) का नाम, पर बहत लोगो को नहीं मालूम की 1 नहीं 2 नहीं बल्कि 4 बार वों उत्तर प्रदेश की सरज़मीन में आये और हर बार सफलता उनके हाथ लगी . उनके कुल 5 उपन्यास ऐसे हैं जिनका सीधा संबंध उत्तर प्रदेश के साथ हैं एवं उनमे से कई का कॉमिक्स रूपांतरण भी हो चुका है और शायद आने वाले समय में उनके सारे ‘एडवेंचर्स’ भी कॉमिक फॉर्म में देखने को मिलें. चलिये आज बात करते हैं उनके इन कहानियों के बारे में जो ‘फेलुदा’ के प्रशंसकों को, उत्तर प्रदेश को, एक लेखक के नज़रिये से देखने का अवसर प्रदान करता हैं.

१) बादशाही अंगूठी (1966)

मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब की एक अंगूठी के इर्द गिर्द बनी हुई इस कहानी में फेलुदा जाते हैं नवाबो के शहर लखनऊ में, जहां फेलुदा के एक चाचाजी के एक दोस्त ‘डॉक्टर श्रीवास्तव’ को विरासत में मिली हुई होती हैं एक ऐतिहासिक अंगूठी. अंगूठी चोरी हो जाती हैं और एक से बढ़ कर एक किरदार इस कहानी में शामिल होते जाते हैं. इस कहानी की खासियत ये रही की एक जटिल रहस्य के समाधान के वक़्त भी सत्यजीत रे ने कोई भी मौका नहीं गंवाया जहां लखनऊ नगरी की खासियत को पाठकों के सामने उन्होंने न रखा हो. इमामबाड़ा का इतिहास हो या लखनउवी पकवानो के ज़ायकेदार किस्से, एक किरदार का अचूक विवरण जो जंगली और ज़हरीले जानवरो को रेस्क्यू करता हो, हरिद्वार के पावन भूमि का वर्णन हो या लक्ष्मण झूले का सटीक वर्णन से पाठको को रोमांचित करना, एक ही कहानी के इतने अलग पहलु भारत के किशोर साहित्य में आज भी दुर्लभ हैं. यह उपन्यास पहली बार 1966-67 में सन्देश पत्रिका में क्रमबद्ध तरीके से प्रकाशित किया गया था, वर्ष 1967 में इसको किताब के रूप में प्रकाशित किया आनंद पब्लिशर ने.

फेलुदा
२) जय बाबा फेलुनाथ (1975)

फेलुदा की इस उपन्यास को उनके सभी उपन्यासों में से खास दर्जा मिला हुआ है और वो  खासियत हैं यह की इसी उपन्यास में पहली बार सत्यजीत रे का सामना होता हैं ‘मगनलाल मेघराज’ से जिन्होंने कई बार फेलुदा के दाँतों तले चने चबवा दिए थे. ये भारत के ‘किशोर साहित्य’ के उन सीमित निगेटिव किरदारों में हैं जिन्होंने एक से अधिक बार वापसी की और अपने अनोखे शख्सियत की वजह से हमेशा पाठकों के दिलो दिमाग में हावी रहे. इस उपन्यास में फेलुदा अपने भाई ‘तोपसे’ और दोस्त ‘लालमोहन बाबू’  के साथ जाते हैं पुण्यभूमि बनारस और सुलझाते हैं एक सोने की गणेश मूर्ति का रहस्य. शहर के चकाचौंध से दूर उत्तर भारत के एक छोटे से कसबे की सादगी और मासूमियत का ऐसा निर्दर्शन भारत के किसी भी किशोर उपन्यास में दुर्लभ हैं, शारदीया संख्या देश मैगज़ीन वर्ष1975 में इसे पहली बार प्रकाशित किया गया.

जय बाबा फेलुदा
3) अब की बार केदारनाथ  (अनुवाद, ओरिजिनल शीर्षक एबार कांडो केदारनाथ ए)  (1984)

हिमालय पर्वत श्रृंखला के गोद में बसे ‘केदारनाथ‘ में आविर्भाव होता है धन्वन्तरि जैसे गुण रखने वाले एक रसायनज्ञ भवानी उपाध्याय जी का. उनका अतीत कहता हैं के उन्होंने एक दुरारोग्य व्याधि से एक राजा को नया जीवन दान दिया था और पुरस्कार स्वरुप उनको मिला था एक दुर्लभ विरूपण साक्ष्य जिसकी कीमत आज के दुनिया में करोड़ो में होगी. गौरतलब हैं की इसी वजह से उनकी जान पे बन आती हैं एवं फेलुदा अपने साथियों के साथ इस अभियान में जाते है भवानी उपाध्यायजी की रक्षा हेतु. अनूठे किरदारों से लैस इस उपन्यास के दौरान भी सत्यजीत रे जी ने अपने ट्रेडमार्क स्टाइल से पहाड़ो की खूबसूरती का बखूवी से वर्णन करने का एक भी मौका नहीं गंवाया, इस कहानी के अंत में फेलुदा के साथी लालमोहन बाबू के साथ भवानी उपाध्याय जी का एक चौकाने वाला तथ्य का उजागर होना इस उपन्यास के अंत को बहत ही सुखद बनाता हैं, शारदीया संख्या देश मैगज़ीन वर्ष 1984 में इसे पहली बार प्रकाशित किया गया. इस उपन्यास का कॉमिक संस्करण भी उपलब्ध हैं जिसे अपने सधी हुई चित्रकारी से कॉमिक का रूप दिया अभिजीत चट्टोपाध्याय जी ने.

एबार काण्डों केदारनाथ ए - फेलुदा
4) शकुंतला का कंठहार  (1988)

इस उपन्यास में फेलुदा की एक बार फिर वापसी होती है नवाबों के शहर लखनऊ में. इस सफर में फेलुदा के एक गुणमुग्ध समर्थक के ‘सास’ स्वर्गीय अभिनेत्री शकुंतला देवी का एक कीमती कंठहार (नेकलेस) चोरी हो जाता हैं, केस को एक दूसरा आयाम मिलता है जब किसी की हत्या भी इस केस के दौरान हो जाती हैं. इस उपन्यास का कोई कॉमिक संस्करण अभी नहीं निकला है और उम्मीद करते हैं की इसका कॉमिक वर्शन भी जल्द पाठको के लिए उपलब्ध होगा, शारदीया संख्या देश मैगज़ीन वर्ष 1988 में इसे पहली बार प्रकाशित किया गया.

देश मैगज़ीन कवर
5) रॉबर्ट्सन की रूबी (1992)

इस उपन्यास की पृष्ठभूमि हालाँकि उत्तर प्रदेश नहीं है पर इस कहानी के तार जुड़े हुए हैं स्वतंत्रता संग्राम की धरती पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साथ जहां सिपाही विद्रोह की शुरवात हुई थी. मिस्टर रॉबर्ट्सन ने भारत से एक बहुमल्य रूबी चुरायी थी और अपने अंतिम दिनों तक वो भारत में किये गए उनके अत्याचारों के बारे में सोच कर दुखी रहते थे. सदियों बाद उनका पोता उस रूबी को भारत में लौटाने के लिए आता है और शुरवात होती हैं एक रहस्य गाथा की जिसकी हर परत को उधेड़ने की ज़िम्मेदारी आ जाती है फेलुदा के ऊपर. बंगाल के वीरभूम जिला के पृष्ठभूमि पे बने इस उपन्यास में सत्यजीत रे ने बंगाल के मशहूर टेराकोटा मंदिर निर्माण शैली का भी वर्णन बखूबी किया हैं. विदेशी मूल के किरदार और भारत के प्रति उनके विचारधाराओ के आधार पे बनी इस उपन्यास में वह हर गुण हैं जो एक रहस्य उपन्यास में होने चाहिए. शारदीया संख्या देश मैगज़ीन १९९२  में इसे पहली बार प्रकाशित किया गया .हम खुशकिस्मत हैं इस उपन्यास का भी कॉमिक रूपांतर हुआ हैं और पाठको ने इस कॉमिक को खूब सराहा भी हैं.

रॉबर्ट्सन की रूबी (1992)

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